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जिन के गुनाह मेरी नज़र से निहाँ नहीं | शाही शायरी
jin ke gunah meri nazar se nihan nahin

ग़ज़ल

जिन के गुनाह मेरी नज़र से निहाँ नहीं

नज़ीर सिद्दीक़ी

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जिन के गुनाह मेरी नज़र से निहाँ नहीं
रहते हैं मुझ से दिल में ख़फ़ा किस क़दर वो लोग

मंज़िल जिन्हें अज़ीज़ न रह-रव जिन्हें अज़ीज़
कहलाते हैं हमारे यहाँ राहबर वो लोग

अंजाम-ए-कारवाँ था इसी बात से अयाँ
मंज़िल थी जिन की और बने हम-सफ़र वो लोग

अपना समझ सकें न जिन्हें ग़ैर कह सकें
मिलते हैं हर क़दम पे सर-ए-रह-गुज़र वो लोग

तेरा कलाम सुन के जो ख़ामोश हैं 'नज़ीर'
उन का गिला न कह कि हैं अहल-ए-नज़र वो लोग