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जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया | शाही शायरी
jitne marka-e-dil wo lagatar gaya

ग़ज़ल

जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया

अब्दुल अहद साज़

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जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
जिस घड़ी फ़त्ह का ऐलान हुआ हार गया

थक के लौट आए अलम-दार-ए-मसावात आख़िर
दूर तक सिलसिला-ए-अंदक-ओ-बिस्यार गया

जिस को सब सहल-तलब जान के करते थे गुरेज़
इक वही शख़्स सू-ए-मंज़िल-ए-दुश्वार गया

इन दिनों ज़ेहन की दुनिया में है मसरूफ़ बशर
दिल की तहज़ीब गई दर्द का व्यवहार गया

हम गुनहगारों से बा-मअ'नी रहा हश्र का दिन
वर्ना ये सारा ही मंसूबा था बेकार गया

'साज़' है दिल-ज़दा अब भी तिरे शेरों के तुफ़ैल
हम तो समझे थे कि ऐ मीर ये आज़ार गया