जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
जिस घड़ी फ़त्ह का ऐलान हुआ हार गया
थक के लौट आए अलम-दार-ए-मसावात आख़िर
दूर तक सिलसिला-ए-अंदक-ओ-बिस्यार गया
जिस को सब सहल-तलब जान के करते थे गुरेज़
इक वही शख़्स सू-ए-मंज़िल-ए-दुश्वार गया
इन दिनों ज़ेहन की दुनिया में है मसरूफ़ बशर
दिल की तहज़ीब गई दर्द का व्यवहार गया
हम गुनहगारों से बा-मअ'नी रहा हश्र का दिन
वर्ना ये सारा ही मंसूबा था बेकार गया
'साज़' है दिल-ज़दा अब भी तिरे शेरों के तुफ़ैल
हम तो समझे थे कि ऐ मीर ये आज़ार गया
ग़ज़ल
जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
अब्दुल अहद साज़