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जीते-जी के आश्ना हैं फिर किसी का कौन है | शाही शायरी
jite-ji ke aashna hain phir kisi ka kaun hai

ग़ज़ल

जीते-जी के आश्ना हैं फिर किसी का कौन है

आग़ा अकबराबादी

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जीते-जी के आश्ना हैं फिर किसी का कौन है
नाम के अपने हुआ करते हैं अपना कौन है

जान-ए-जाँ तेरे सिवा रश्क-ए-मसीहा कौन है
मार कर ठोकर जिला दे मुझ को ऐसा कौन है

ये सियह ख़ेमा है किस का इस में लैला कौन है
चम्बर-ए-अफ़्लाक के पर्दे में बैठा कौन है

हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं
देखिए तो अब सर-ए-बाज़ार रुस्वा कौन है

वो तो है बे-नूर और ये नूर से मामूर है
चश्म को नर्गिस कहेगा ऐसा अंधा कौन है

दम-ब-दम हर बात में करते हो ठंडी गर्मियाँ
आप की उखड़ी हुई बातों पे जमता कौन है

वादी-ए-वहशत में भी हम-राह हैं आह-ओ-फ़ुग़ाँ
अपने हमदम साथ हैं ऐ जान तन्हा कौन है

ख़ैर है ऐ मेहरबाँ किस ने उन्हें सीधा क्या
आप क्यूँ बल करते हैं ज़ुल्फ़ों से उलझा कौन है

दुख़्तर-ए-रज़ सच बता तेरी नज़र किस पर पड़ी
टट्टियों की आड़ में से किस को ताका कौन है

आज मक़्तल में खड़े कहते हैं वो ख़ंजर-ब-कफ़
बोल उठे चाहने वाला हमारा कौन है

चार दिन जो कुछ तमाशा देखना है देख ले
सैर को फिर गुलशन-ए-दुनिया में आता कौन है

बाँध कर तेग़ ओ कफ़न जाते हैं उस क़ातिल के पास
हम भी देखें रोकने वाला हमारा कौन है

क्या तजाहुल है कि वो फ़रमाते हैं अग़्यार से
मैं नहीं पहचानता मुतलक़ कि 'आग़ा' कौन है