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जीत कर बाज़ी-ए-उल्फ़त को भी हारा जाए | शाही शायरी
jit kar bazi-e-ulfat ko bhi haara jae

ग़ज़ल

जीत कर बाज़ी-ए-उल्फ़त को भी हारा जाए

अब्दुल रहमान ख़ान वासिफ़ी बहराईची

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जीत कर बाज़ी-ए-उल्फ़त को भी हारा जाए
इस तरह हुस्न को शीशे में उतारा जाए

अब तो हसरत है कि बरबाद किया है जिस ने
उस का दीवाना मुझे कह के पुकारा जाए

आप के हुस्न की तौसीफ़ से मक़्सद है मिरा
नक़्श-ए-फ़ितरत को ज़रा और उभारा जाए

तुम ही बतलाओ कि जब अपने ही बेगाने हैं
दहर में अपना किसे कह के पुकारा जाए

ज़ेहन-ए-ख़ुद्दार पे ये बार ही हो जाता है
ग़ैर के सामने दामन जो पसारा जाए

कितनी दुश्वार है पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा
आह भी लब पे अगर आए तो मारा जाए

शब तो कट जाएगी यादों के सहारे 'वसफ़ी'
फ़िक्र इस की है कि दिन कैसे गुज़ारा जाए