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जीने को एक-आध बहाना काफ़ी होता है | शाही शायरी
jine ko ek-adh bahana kafi hota hai

ग़ज़ल

जीने को एक-आध बहाना काफ़ी होता है

शनावर इस्हाक़

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जीने को एक-आध बहाना काफ़ी होता है
सच्चा हो तो एक फ़साना काफ़ी होता है

चाँद को मैं ने जब भी देखा ये एहसास हुआ
इक सहरा में इक दीवाना काफ़ी होता है

हम रूठें तो घर के कमरे कम पड़ जाते हैं
हम चाहें तो एक सिरहाना काफ़ी होता है

जीते-जी ये बात न मानी मर के मान गए
सब कहते थे एक ठिकाना काफ़ी होता है