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जीने की है उम्मीद न मरने का यक़ीं है | शाही शायरी
jine ki hai ummid na marne ka yaqin hai

ग़ज़ल

जीने की है उम्मीद न मरने का यक़ीं है

फ़ानी बदायुनी

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जीने की है उम्मीद न मरने का यक़ीं है
अब दिल का ये आलम है न दुनिया है न दीं है

गुम हैं रह-ए-तस्लीम में तालिब भी तलब भी
सज्दा ही दर-ए-यार है सज्दा ही जबीं है

कुछ मज़हर-ए-बातिन हूँ तो कुछ महरम-ए-ज़ाहिर
मेरी ही वो हस्ती है कि है और नहीं है

ईज़ा के सिवा लज़्ज़त-ए-ईज़ा भी मिलेगी
क्यूँ जल्वा-गह-ए-होश यहाँ दिल भी कहीं है

मायूस सही हसरती-ए-मौत हूँ 'फ़ानी'
किस मुँह से कहूँ दिल में तमन्ना ही नहीं है