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जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते | शाही शायरी
jidhar ho zindagi mushkil udhar nahin aate

ग़ज़ल

जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते

साबिर ज़फ़र

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जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते
अजल से पहले मिरे चारा-गर नहीं आते

बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
पलट के माओं के लख़्त-ए-जिगर नहीं आते

उठाए अपनों की लाशें जो तुम हो नौहा-कुनाँ
मिरे शहीद तुम्हें क्यूँ नज़र नहीं आते

न इंतिज़ार करो इन का ऐ अज़ा-दारो
शहीद जाते हैं जन्नत को घर नहीं आते

मैं नौहे कब नहीं लिखता हूँ रफ़्तगाँ के 'ज़फ़र'
कब अश्क मिस्ल-ए-हुरूफ़-ए-हुनर नहीं आते