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झुँझलाए हैं लजाए हैं फिर मुस्कुराए हैं | शाही शायरी
jhunjhlae hain lajae hain phir muskurae hain

ग़ज़ल

झुँझलाए हैं लजाए हैं फिर मुस्कुराए हैं

ख़ुमार बाराबंकवी

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झुँझलाए हैं लजाए हैं फिर मुस्कुराए हैं
किस एहतिमाम से उन्हें हम याद आए हैं

दैर-ओ-हरम के हब्स-कदों के सताए हैं
हम आज मय-कदे की हवा खाने आए हैं

अब जा के आह करने के आदाब आए हैं
दुनिया समझ रही है कि हम मुस्कुराए हैं

गुज़रे हैं मय-कदे से जो तौबा के बा'द हम
कुछ दूर आदतन भी क़दम लड़खड़ाए हैं

ऐ जोश-ए-गिर्या देख न करना ख़जिल मुझे
आँखें मिरी ज़रूर हैं आँसू पराए हैं

ऐ मौत ऐ बहिश्त-ए-सुकूँ आ ख़ुश-आमदीद
हम ज़िंदगी में पहले पहल मुस्कुराए हैं

जितनी भी मय-कदे में है साक़ी पिला दे आज
हम तिश्ना-काम ज़ोहद के सहरा से आए हैं

इंसान जीते-जी करें तौबा ख़ताओं से
मजबूरियों ने कितने फ़रिश्ते बनाए हैं

समझाते क़ब्ल-ए-इश्क़ तो मुमकिन था बनती बात
नासेह ग़रीब अब हमें समझाने आए हैं

का'बे में ख़ैरियत तो है सब हज़रत-ए-'ख़ुमार'
ये दैर है जनाब यहाँ कैसे आए हैं