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झोंका हवा का अध-खुली खिड़की तक आ न जाए | शाही शायरी
jhonka hawa ka adh-khuli khiDki tak aa na jae

ग़ज़ल

झोंका हवा का अध-खुली खिड़की तक आ न जाए

शकेब अयाज़

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झोंका हवा का अध-खुली खिड़की तक आ न जाए
जीने का उस को कोई सलीक़ा सिखा न जाए

कंकर से चकनाचूर है सय्याल आइना
क़िर्तास-ए-मौज का कोई लिक्खा मिटा न जाए

उर्यां खड़ी हुई ये सियह सी पहाड़ शब
सूरज की इंफ़िआली नज़र को झुका न जाए

जब से हुई है मेरी ज़बाँ ज़हर-आश्ना
अमृत का एक घूँट भी मुझ से पिया न जाए

गर्दिश में आसमान मिरा साथ दे मगर
मेरी हथेलियों की लकीरें मिटा न जाए

कल इक अजीब वाक़िआ गुज़रा 'शकेब-अयाज़'
सोचूँ तो ख़ुद पे ख़ूब हँसूँ और कहा न जाए