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झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं | शाही शायरी
jhapaTte hain jhapaTne ke liye parwaz karte hain

ग़ज़ल

झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं

ख़ालिद महमूद

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झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं
कबूतर भी वही करने लगे जो बाज़ करते हैं

वही क़िस्से वही बातें कि जो ग़म्माज़ करते हैं
तिरे हमराज़ करते हैं मिरे दम-साज़ करते हैं

ब-सद हीले बहाने ज़ुल्म का दर बाज़ करते हैं
वही जाँ-बाज़ जिन पर हर घड़ी हम नाज़ करते हैं

ज़ियादा देखते हैं जब वो आँखें फेर लेते हैं
नज़र में रख रहे हों तो नज़र-अंदाज़ करते हैं

सताइश-घर के पंखों से हवा तो कम ही आती है
मगर चलते हैं जब ज़ालिम बहुत आवाज़ करते हैं

ज़माने भर को अपना राज़-दाँ करने की ठहरी है
तो बेहतर है चलो उस शोख़ को हमराज़ करते हैं

डराता है बहुत अंजाम-ए-नमरूदी मुझे 'ख़ालिद'
ख़ुदा लहजे में जब बंदे सुख़न आग़ाज़ करते हैं