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जेहल को इल्म का मेआ'र समझ लेते हैं | शाही शायरी
jehl ko ilm ka mear samajh lete hain

ग़ज़ल

जेहल को इल्म का मेआ'र समझ लेते हैं

शायर लखनवी

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जेहल को इल्म का मेआ'र समझ लेते हैं
लोग साए को भी दीवार समझ लेते हैं

छेड़ कर जब भी किसी ज़ुल्फ़ को तू आती है
ऐ सबा हम तिरी रफ़्तार समझ लेते हैं

तू फ़क़त जाम का मफ़्हूम समझ ऐ साक़ी
तिश्नगी क्या है ये मय-ख़्वार समझ लेते हैं

हम कि हैं जुम्बिश-ए-अबरू की ज़बाँ से वाक़िफ़
तेरे खिंचने को भी तलवार समझ लेते हैं

अब किसी बरहमी-ए-ज़ुल्फ़ का चर्चा न करो
लोग अपने को गिरफ़्तार समझ लेते हैं

जो भी बाज़ार में दम-भर को ठहर जाता है
सादा-दिल उस को ख़रीदार समझ लेते हैं

दिल के असरार छुपाते हैं वो हम से 'शाइर'
हम कि रंग-ए-लब-ओ-रुख़सार समझ लेते हैं