जज़्बों से फ़रोज़ाँ हैं दहकते हुए रुख़्सार
क्या हश्र-ब-दामाँ हैं दहकते हुए रुख़्सार
रौशन है अजल और अबद उन की ज़िया से
ये रहमत-ए-यज़्दाँ हैं दहकते हुए रुख़्सार
बढ़ने लगी कुछ और वहाँ आतिश-ए-जज़्बात
दिल में मेरे मेहमाँ हैं दहकते हुए रुख़्सार
कर दी है लब ओ चश्म ने तस्दीक़ हमारी
हुस्न-ए-रुख़-ए-जानाँ हैं दहकते हुए रुख़्सार
चिंगारियाँ उठती हैं तो लगती हैं हमें फूल
जादू-ए-बहाराँ हैं दहकते हुए रुख़्सार
ज़ुल्फ़ों की हवाएँ तो 'सुहैल' और ग़ज़ब हैं
अब आग का तूफ़ाँ हैं दहकते हुए रुख़्सार
ग़ज़ल
जज़्बों से फ़रोज़ाँ हैं दहकते हुए रुख़्सार
सुहैल काकोरवी