जज़्बात का ख़ामोश असर देख रहा हूँ 
बेचैन है दिल आँख को तर देख रहा हूँ 
ख़ाकिस्तर-ए-परवाना है बुझती हुई शमएँ 
रंगीन मोहब्बत की सहर देख रहा हूँ 
मौहूम हुआ जाता है अब मक़्सद-ए-हस्ती 
बातिल को हक़ीक़त पे ज़बर देख रहा हूँ 
छाए हैं कुछ इस तरह मिरे दीदा-ओ-दिल पर 
हर सम्त वही हैं मैं जिधर देख रहा हूँ 
मंज़िल का पता है न मक़ामात सफ़र का 
तय्यार है अब रख़्त-ए-सफ़र देख रहा हूँ 
जिस राह से गुज़रे थे मोहब्बत के मुसाफ़िर 
सुनसान वही राहगुज़र देख रहा हूँ 
ऐ 'मौज' बला-ख़ेज़ है दरिया-ए-मोहब्बत 
तूफ़ान का आलम है जिधर देख रहा हूँ
        ग़ज़ल
जज़्बात का ख़ामोश असर देख रहा हूँ
मोज फ़तेहगढ़ी

