EN اردو
जज़्बात का ख़ामोश असर देख रहा हूँ | शाही शायरी
jazbaat ka KHamosh asar dekh raha hun

ग़ज़ल

जज़्बात का ख़ामोश असर देख रहा हूँ

मोज फ़तेहगढ़ी

;

जज़्बात का ख़ामोश असर देख रहा हूँ
बेचैन है दिल आँख को तर देख रहा हूँ

ख़ाकिस्तर-ए-परवाना है बुझती हुई शमएँ
रंगीन मोहब्बत की सहर देख रहा हूँ

मौहूम हुआ जाता है अब मक़्सद-ए-हस्ती
बातिल को हक़ीक़त पे ज़बर देख रहा हूँ

छाए हैं कुछ इस तरह मिरे दीदा-ओ-दिल पर
हर सम्त वही हैं मैं जिधर देख रहा हूँ

मंज़िल का पता है न मक़ामात सफ़र का
तय्यार है अब रख़्त-ए-सफ़र देख रहा हूँ

जिस राह से गुज़रे थे मोहब्बत के मुसाफ़िर
सुनसान वही राहगुज़र देख रहा हूँ

ऐ 'मौज' बला-ख़ेज़ है दरिया-ए-मोहब्बत
तूफ़ान का आलम है जिधर देख रहा हूँ