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जज़्बा-ए-सोज़-ए-तलब को बे-कराँ करते चलो | शाही शायरी
jazba-e-soz-e-talab ko be-karan karte chalo

ग़ज़ल

जज़्बा-ए-सोज़-ए-तलब को बे-कराँ करते चलो

साग़र सिद्दीक़ी

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जज़्बा-ए-सोज़-ए-तलब को बे-कराँ करते चलो
कू-ब-कू रौशन चराग़-ए-कारवाँ करते चलो

चश्म-ए-साक़ी पुर-तबस्सुम मै-कदा बहका हुआ
आओ क़िस्मत को हरीफ़-ए-कहकशाँ करते चलो

छीन लाओ आसमाँ से महर ओ मह की अज़्मतें
और टूटे झोंपड़ों की ज़ौ फ़शाँ करते चलो

ज़िंदगी को लोग कहते हैं बराए-बंदगी
ज़िंदगी कट जाएगी ज़िक्र-ए-बुताँ करते चलो

जिन से ज़िंदा हो यक़ीन ओ आगही की आबरू
इश्क़ की राहों में कुछ ऐसे गुमाँ करते चलो

हर नफ़स ऐ जीने वालो शग़्ल-ए-पैमाना रहे
बे-ख़ुदी को ज़िंदगी का पासबाँ करते चलो

छेड़ कर 'साग़र' किसी के गेसुओं की दास्ताँ
इन शगूफ़ों को ज़रा शोला-ज़बाँ करते चलो