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जज़्ब है ख़ामशी-ए-गुल में तकल्लुम तेरा | शाही शायरी
jazb hai KHamshi-e-gul mein takallum tera

ग़ज़ल

जज़्ब है ख़ामशी-ए-गुल में तकल्लुम तेरा

इशरत ज़फ़र

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जज़्ब है ख़ामशी-ए-गुल में तकल्लुम तेरा
जावेदाँ मेरे चमन में है तबस्सुम तेरा

बाग़ में सैल-ए-नुमू-खेज़ की हलचल तेरी
दश्त में शोर-ए-सिपाह-ए-मह-ओ-अंजुम तेरा

तेरी मरहून-ए-नवाज़िश मिरी सर्शारी-ए-ख़ाक
मय-कदा तेरा मय-ए-नाब तिरी ख़ुम तेरा

ख़ुश्क-ओ-तर पस्त-ओ-बुलंद आईना-ए-शाम-ओ-सहर
मेहरबाँ सब पे है सैलाब-ए-तरह्हुम तेरा

सब तिरे ज़ेर-ए-नगीं मौज समुंदर साहिल
बादबाँ तेरा तिरी नाव तलातुम तेरा

चश्मा-ए-आब-ए-रवाँ है जो सराब-ए-जाँ में
उस की हर लहर में रक़्साँ है तरन्नुम तेरा

है तिरी मिट्टी के हर ज़र्रे पे एहसाँ जिस का
'इशरत' उस ज़ात में हर नक़्श हुआ गुम तेरा