जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई
हुआ दीवानों में जब ग़ुल बहार आई बहार आई
हुआ था मर्ग से ग़ाफ़िल मैं किस दिन जोश-ए-वहशत में
सबा क्यूँ ले के मेरे सामने मुश्त-ए-ग़ुबार आई
दिखाए रंज पीरी के अजल तेरे तग़ाफ़ुल ने
तुझे आना था पहले आह तू अंजाम कार आई
हमारे तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ के तेज़ करने को
शमीम-ए-ज़ुल्फ़ दोश-ए-बाद-ए-सरसर पर सवार आई
न पाया वक़्त ऐ ज़ाहिद कोई मैं ने इबादत का
शब-ए-हिज्राँ हुई आख़िर तो सुब्ह-ए-इंतिज़ार आई
न कुछ ख़तरा ख़िज़ाँ का है न एहसान-ए-बहार उस पर
अदम से अपनी शाख़-ए-आरज़ू बे-बर्ग-ओ-बार आई
हमारी देखियो ग़फ़लत न समझे वाए नादानी
हमें दो दिन के बहलाने को उम्र-ए-बे-मदार आई
जो नंग-ए-इश्क़ हैं वो बुल-हवस फ़रियाद करते हैं
लब-ए-ज़ख़्म-ए-'हवस' से कब सदा-ए-ज़ींहार आई
ग़ज़ल
जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस