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जौहर-ए-आसमाँ से क्या न हुआ | शाही शायरी
jauhar-e-asman se kya na hua

ग़ज़ल

जौहर-ए-आसमाँ से क्या न हुआ

ग़ुलाम मौला क़लक़

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जौहर-ए-आसमाँ से क्या न हुआ
दरख़ुर-ए-अर्ज़-ए-मुद्दआ न हुआ

सई-ए-जाँ लाएक़-ए-दविश न हुई
दर्द-ए-दिल क़ाबिल-ए-दवा न हुआ

ढेर है इक ग़ुबार-ए-ख़ातिर का
ख़ाक है जिस का दिल सफ़ा न हुआ

हैफ़ दस्त-ए-दुआ-ओ-दामन-ए-नाज़
ख़ैर गुज़री कि तू ख़ुदा न हुआ

वहदहू-ला-शरीक क्या मअ'नी
न हुआ तू ही आश्ना न हुआ

रश्क-ए-बाहम अज़ल से अव्वल है
एक की शक्ल दूसरा न हुआ

वास्ते दिल के है जिगर दरकार
दिल-रुबा भी तो दिल-रुबा न हुआ

साफ़ हाथों से तेरे उड़ जाता
ख़ूँ मिरा ताइर-ए-हिना न हुआ

ऐ फ़लक मिलते मिलते खो जाता
किसी मुफ़्लिस का आसरा न हुआ

याद दिलवाना क्यूँ नहीं मायूब
शुक्र कब शिकवा-ए-जफ़ा न हुआ

रहबरी और मुझ से वहशी की
रहनुमा अपना रहनुमा न हुआ

बे-नसीबी-ए-बादशाह न पूछ
इस गदाई पे भी गदा न हुआ

न निकलता कभी मिरे दिल से
मेरा ही तू भी मुद्दआ न हुआ

कौन बेहतर अदू से हो सच है
कुश्ता-ए-ज़िल्लत-ए-वफ़ा न हुआ

अहल-ए-क़िबला को है तलाश-ए-इमाम
ऐ 'क़लक़' तू ही पारसा न हुआ