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जरस है कारवान-ए-अहल-ए-आलम में फ़ुग़ाँ मेरी | शाही शायरी
jaras hai karwan-e-ahl-e-alam mein fughan meri

ग़ज़ल

जरस है कारवान-ए-अहल-ए-आलम में फ़ुग़ाँ मेरी

सीमाब अकबराबादी

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जरस है कारवान-ए-अहल-ए-आलम में फ़ुग़ाँ मेरी
जगा देती है दुनिया को सदा-ए-अल-अमाँ मेरी

तसव्वुर में वो कुछ बरहम से हैं कुछ मेहरबाँ से हैं
उन्हें शायद सुनाई जा रही है दास्ताँ मेरी

हर इक ज़र्रा है सहरा और हर सहरा है इक दुनिया
मगर इस वुसअत-ए-आलम में गुंजाइश कहाँ मेरी

मिरी हैरत पे वो तन्क़ीद की तकलीफ़ करते हैं
जिन्हें ये भी नहीं मालूम नज़रें हैं कहाँ मेरी

मुसलसल था फ़रेब-ए-ख़ाब-गाह-ए-आलम-ए-फ़ानी
मगर सोता रहा चलती रही उम्र-ए-रवाँ मेरी

वही लम्हा वरूद-ए-ना-गहाँ का उन के हो शायद
जता कर आए जब भी आए मर्ग-ए-ना-गहाँ मेरी

मज़ाक़-ए-हम-ज़बानी को न तरसूँ बाग़-ए-जन्नत में
कोई 'सीमाब' हूरों को सिखा देता ज़बाँ मेरी