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जन्नत से निकाला न जहन्नुम से निकाला | शाही शायरी
jannat se nikala na jahannum se nikala

ग़ज़ल

जन्नत से निकाला न जहन्नुम से निकाला

सुहैल अख़्तर

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जन्नत से निकाला न जहन्नुम से निकाला
उस ने तो मुझे ख़ोशा-ए-गंदुम से निकाला

रखा है मुझे आज तलक मौज में उस ने
जिस लहर को गिर्दाब-ओ-तलातुम से निकाला

ये भूल ही बैठा था ज़बाँ रखता हूँ मैं भी
सो ख़ुद को तिरे सहर-ए-तकल्लुम से निकाला

इस आदत-ए-ताख़ीर को इक उम्र है दरकार
मुश्किल से तबीअ'त को तक़द्दुम से निकाला

तदबीर को तक़दीर की ग़फ़लत से जगाया
उम्मीद को भी तोहमत-ए-अंजुम से निकाला

लगता था निकल ही नहीं पाऊँगा 'सुहैल' अब
उस ने तो मुझे एक तबस्सुम से निकाला