जन्नत से निकाला न जहन्नुम से निकाला
उस ने तो मुझे ख़ोशा-ए-गंदुम से निकाला
रखा है मुझे आज तलक मौज में उस ने
जिस लहर को गिर्दाब-ओ-तलातुम से निकाला
ये भूल ही बैठा था ज़बाँ रखता हूँ मैं भी
सो ख़ुद को तिरे सहर-ए-तकल्लुम से निकाला
इस आदत-ए-ताख़ीर को इक उम्र है दरकार
मुश्किल से तबीअ'त को तक़द्दुम से निकाला
तदबीर को तक़दीर की ग़फ़लत से जगाया
उम्मीद को भी तोहमत-ए-अंजुम से निकाला
लगता था निकल ही नहीं पाऊँगा 'सुहैल' अब
उस ने तो मुझे एक तबस्सुम से निकाला
ग़ज़ल
जन्नत से निकाला न जहन्नुम से निकाला
सुहैल अख़्तर