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जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ | शाही शायरी
jangalon mein justuju-e-qais-e-sahrai karun

ग़ज़ल

जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ

मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

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जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ
कब तलक ढूँडूँ कहाँ तक जादा-पैमाई करूँ

गर कोई माने न हो वाँ सज्दा करने का मुझे
आस्तान-ए-यार पर बरसों जबीं-साई करूँ

बज़्म-ए-हस्ती में नहीं जुज़ बेकसी अपना रफ़ीक़
किस की ख़ातिर दोस्तो मैं महफ़िल-आराई करूँ

ग़ारत-ए-दिल का जो करता है इरादा तर्क-ए-चश्म
ग़म्ज़ा कहता है मैं ताराज शकेबाई करूँ

ले गए जब तेरे दीवाने को ईसा ने कहा
हर घड़ी मैं क्या इलाज-ए-मर्द-ए-सौदाई करूँ

आश्ना कोई नज़र आता नहीं याँ ऐ 'हवस'
किस को मैं अपना अनीस-ए-कुंज-ए-तन्हाई करूँ