जंगल का सन्नाटा मेरा दुश्मन है
फैलता सहरा दीदा-ओ-दिल का दुश्मन है
जिस्म की ओट में घात लगाए बैठा है
मौसम-ए-गुल भी एक अनोखा दुश्मन है
नक़्श-ए-वफ़ा में रंग वही है देखो तो
जिस की दुनिया जो दुनिया का दुश्मन है
साहिल-ए-मर्ग पे रफ़्ता रफ़्ता ले आया
तन्हाई का रोग भी अच्छा दुश्मन है
चाँद में शायद प्यार मिलेगा इंसाँ को
इस बस्ती का साया साया दुश्मन है
पत्थर तो ख़ामोश पड़े हैं राहों में
आईना क्यूँ आईने का दुश्मन है
जिस को दुश्मन समझा वो तो छोड़ गया
जिस को अपना जाना गहरा दुश्मन है
ग़ज़ल
जंगल का सन्नाटा मेरा दुश्मन है
अहमद ज़फ़र