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जल्वा-ए-गुल का सबब दीदा-ए-तर है कि नहीं | शाही शायरी
jalwa-e-gul ka sabab dida-e-tar hai ki nahin

ग़ज़ल

जल्वा-ए-गुल का सबब दीदा-ए-तर है कि नहीं

मजरूह सुल्तानपुरी

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जल्वा-ए-गुल का सबब दीदा-ए-तर है कि नहीं
मेरी आहों से बहाराँ की सहर है कि नहीं

राह-ए-गुम-कर्दा हूँ कुछ उस को ख़बर है कि नहीं
उस की पलकों पे सितारों का गुज़र है कि नहीं

दिल से मिलती तो है इक राह कहीं से आ कर
सोचता हूँ ये तिरी राहगुज़र है कि नहीं

तेज़ हो दस्त-ए-सितम दे भी शराब ऐ साक़ी
तेग़ गर्दन पे सही जाम सिपर है कि नहीं

मैं जो कहता था सो ऐ रहबर-ए-कोताह-ख़िराम
तेरी मंज़िल भी मिरी गर्द-ए-सफ़र है कि नहीं

अहल-ए-तक़दीर ये है मोजज़ा-ए-दस्त-ए-अमल
जो ख़ज़फ़ मैं ने उठाया वो गुहर है कि नहीं

देख कलियों का चटकना सर-ए-गुलशन सय्याद
सब की और सब से जुदा अपनी डगर है कि नहीं

हम रिवायात के मुनकिर नहीं लेकिन 'मजरूह'
ज़मज़मा-संज मिरा ख़ून-ए-जिगर है कि नहीं