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जल्वा-ए-दीदार तो इक बात है | शाही शायरी
jalwa-e-didar to ek baat hai

ग़ज़ल

जल्वा-ए-दीदार तो इक बात है

पंडित जवाहर नाथ साक़ी

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जल्वा-ए-दीदार तो इक बात है
लन-तरानी आशिक़ों की घात है

आश्ना जिस का है तू आराम-ए-जाँ
वो जहाँ में मोरिद-ए-आफ़ात है

बोसा-ए-रुख़ दे ज़कात-ए-हुस्न है
ऐ हसीं ये दाख़िल-ए-हस्नात है

आइना-ख़ाना बना है मेरा दिल
देख ले क्या ख़ुशनुमा मिरआत है

जान-ओ-दिल था नज़्र तेरी कर चुका
तेरे आशिक़ की यही औक़ात है

गिर्या-ए-उश्शाक़ पर हैं ख़ंदा-ज़न
कहते हैं क्या ख़ुशनुमा बरसात है

हिज्र की शब है हुजूम-ए-सद-बला
मैं हूँ तन्हा और ख़ुदा की ज़ात है

ख़ात्मा-बिल-ख़ैर हो जाए कहीं
शर्म अपनी अब ख़ुदा के हाथ है

ज़िंदगी है चार दिन की चाँदनी
फिर वही 'साक़ी' अँधेरी रात है