जलते हुए कुछ सोच के इक पल को रुका था
ऐसे भी वो यादों को मिरी छोड़ रहा था
आँखों में थकन गर्द-ए-मह-ओ-साल जबीं पर
इक शख़्स कहीं दूर धुँदलकों में मिला था
अब क्यूँ है उदासी का समाँ हद्द-ए-नज़र तक
कल रात ख़यालों में कोई जाग रहा था
क्यूँ मस्लहतन लोग उसे भूल गए हैं
इंसान की अज़्मत को सलीबों में पढ़ा था
तन्हाई के दरवाज़े से यादों का समुंदर
लगता है कि जज़्बात में सर मार रहा था
रह रह के वो चेहरा मुझे याद आता है 'साक़िब'
देखा नहीं जी भर के उसे कौन था क्या था

ग़ज़ल
जलते हुए कुछ सोच के इक पल को रुका था
मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब