EN اردو
जलता नहीं और जल रहा हूँ | शाही शायरी
jalta nahin aur jal raha hun

ग़ज़ल

जलता नहीं और जल रहा हूँ

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

;

जलता नहीं और जल रहा हूँ
किस आग में मैं पिघल रहा हूँ

मफ़्लूज हैं हाथ पाँव मेरे
फिर ज़ेहन में क्यूँ ये चल रहा हूँ

इक बूँद नहीं लहू की बाक़ी
किस बात पर मैं मचल रहा हूँ

तुम झूट ये कह रहे हो मुझ से
मैं भी कभी बे-बदल रहा हूँ

क्यूँ मुझ से हुए गुनाह सरज़द
कहने को तो बे-अमल रहा हूँ

राई का बना के एक पर्बत
अब उस पे यूँही फिसल रहा हूँ

किस हाथ से हाथ मैं मिलाऊँ
अब अपने ही हाथ मल रहा हूँ

क्यूँ आईना बार बार देखूँ
मैं आज नहीं जो कल रहा हूँ

अब कौन सा दर रहा है बाक़ी
इस दर से मैं क्यूँ निकल रहा हूँ

क़दमों के तले तो कुछ नहीं है
किस चीज़ को मैं कुचल रहा हूँ

अब कोई नहीं रहा सहारा
मैं आज फिर से सँभल रहा हूँ

मैं क्यूँ करूँ आसमाँ की ख़्वाहिश
अब तक तो ज़मीं पे चल रहा हूँ

ये बर्फ़ हटाओ मेरे सर से
मैं आज कुछ और जल रहा हूँ

मुझ को न पिलाओ कोई पानी
प्यासों के मैं साथ चल रहा हूँ

खाने की नहीं रही तलब कुछ
अब भूक के बल पे पल रहा हूँ