जले हैं दिल न चराग़ों ने रौशनी की है
वो शब-परस्तों ने महफ़िल में तीरगी की है
हदीस-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम है हनूज़ ना-गुफ़्ता
हनूज़ मोहर ज़बानों पे ख़ामुशी की है
उस एक जाम ने साक़ी की जो अता ठहरा
सुकूँ दिया है न कुछ दर्द में कमी की है
हमें ये नाज़ न क्यूँ हो कि नय-नवाज़ हैं हम
हमारे होंटों ने ईजाद नग़्मगी की है
चमन में सिर्फ़ हमीं राज़दाँ हैं काँटों के
गुलों के साथ बसर हम ने ज़िंदगी की है
फ़िराक़-ए-यार ने बख़्शी है वस्ल की लज़्ज़त
ख़याल-ए-यार ने ज़ुल्मत में रौशनी की है
हैं जिस की दीद से महरूम आज तक 'ख़ावर'
उसी की हम ने तसव्वुर में बंदगी की है
ग़ज़ल
जले हैं दिल न चराग़ों ने रौशनी की है
बदीउज़्ज़माँ ख़ावर