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जला है हाए किस जान-ए-चमन की शम-ए-महफ़िल से | शाही शायरी
jala hai hae kis jaan-e-chaman ki sham-e-mahfil se

ग़ज़ल

जला है हाए किस जान-ए-चमन की शम-ए-महफ़िल से

एहसान दानिश

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जला है हाए किस जान-ए-चमन की शम-ए-महफ़िल से
महक फूलों की आती है शरार-ए-आतिश-ए-दिल से

ये दामान-ए-हवादिस से क़यामत तक न गुल होगा
चराग़-ए-दिल मिरा रौशन है उन की शम-ए-महफ़िल से

जनाब-ए-ख़िज़्र हम को ख़ाक रस्ते पर लगाएँगे
कि मंज़िल बे-ख़ुदों की है मुअर्रा क़ैद-ए-मंज़िल से

ठहर भी ऐ ख़याल-ए-हश्र और इक जाम पीने दे
सरकता है अभी ज़ुल्मत का पर्दा ख़ाना-ए-दिल से

सहर ने ले के अंगड़ाई तिलिस्म-ए-नाज़-ए-शब तोड़ा
फ़लक पर हुस्न की शमएँ उठीं तारों की महफ़िल से

बढ़ा है कौन ये गिर्दाब की ख़ूराक होने को
कि उट्ठा शोर-ए-मातम यक-ब-यक अम्बोह-ए-साहिल से

मिरी बालीं से उठ कर रोने वालो ये भी सोचा है
चला हूँ किस की महफ़िल में उठा हूँ किस की महफ़िल से

है उस कम्बख़्त को ज़िद सोज़-ए-बातिन से पिघल जाऊँ
निगाहों ने तुम्हारी कह दिया है क्या मिरे दिल से

न दामन-गीर-ए-दिल हो ना-ख़ुदा फिर कोई नज़्ज़ारा
ख़ुदा के वास्ते कश्ती बढ़ा आग़ोश-ए-साहिल से

सिपुर्द-ए-बे-ख़ुदी कर दे फ़राएज़ अक़्ल-ए-ख़ुद-बीं के
हटा दे इस सियह-बातिन का पहरा ख़ाना-ए-दिल से

हर इक ज़र्रा है दिल ऐ जाने वाले देख कर चलना
हज़ारों हस्तियाँ लिपटी पड़ी हैं ख़ाक-ए-मंज़िल से

मिरी बेबाक नज़रें उन की जानिब उठ ही जाती हैं
अभी 'एहसान' मैं वाक़िफ़ नहीं आदाब-ए-महफ़िल से