जल कर उन आँखों में आँसू जब काजल बन जाते हैं
दिल से उठ कर रेग बगूले दल बादल बन जाते हैं
कोई सच्ची बात ज़बाँ पर जब भी कभी आ जाती है
वो सहरा हो या गुलशन हो सब मक़्तल बन जाते हैं
जब भी ज़ेहन में जाग उठती है इन होंटों की शीरीनी
कैसे कैसे तल्ख़ मसाइल जान ग़ज़ल बन जाते हैं
उस से ज़ियादा क्या होगा अरबाब-ए-मोहब्बत का इज़हार
वो बेकल हो जाते हैं तो सब बेकल बन जाते हैं
हम ने सदियों की दीवारों में जो रख़्ने डाले थे
उन से गुज़रने वाले लम्हे ताज-महल बन जाते हैं

ग़ज़ल
जल कर उन आँखों में आँसू जब काजल बन जाते हैं
सईदुज़्ज़माँ अब्बासी