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जल गया ख़ाक हुआ कब का वो परवाना-ए-दिल | शाही शायरी
jal gaya KHak hua kab ka wo parwana-e-dil

ग़ज़ल

जल गया ख़ाक हुआ कब का वो परवाना-ए-दिल

साक़िब लखनवी

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जल गया ख़ाक हुआ कब का वो परवाना-ए-दिल
ख़त्म होता नहीं अब तक मगर अफ़्साना-ए-दिल

हश्र के दिन पे उठा रख कि बड़ा सौदा है
आलम-ए-हुस्न से मुमकिन नहीं बैआ'ना-ए-दिल

आप की इक निगह-ए-नाज़ उसे छलका देती
क़ाबिल‌‌‌‌-ए-शर्बत-ए-दीदार था पैमाना-ए-दिल

हम जभी समझे थे अंजाम कि जब फ़ितरत ने
ख़ाक और ख़ून से तय्यार किया ख़ाना-ए-दिल

जलने वाले से अलग हो गए हम-मशरब-ए-जाँ
दे के आग उठ गई वो सोहबत-ए-रिंदाना-ए-दिल

तिश्ना-ए-जाम-ए-मुहब्बत से हमीं वाक़िफ़ हैं
क़द्र क्या उन को जो तोड़ा किए पैमाना-ए-दिल

दोहरी ज़ंजीरों में जकड़ा है मुक़द्दर ने मुझे
उस का दीवाना है दिल और मैं दीवाना-ए-दिल

ज़ब्त करता हूँ मगर डर है कि शाम-ए-ग़म में
कहीं तंग आ के न खुल जाए सुलह-ख़ाना-ए-दिल

अब तो क़तरा नहीं हाँ वो भी कभी दिन थे कि हम
मस्त हो जाते थे ख़ुद देख के मय-ख़ाना-ए-दिल

जा-ए-उम्मीद-ओ-तमन्ना का पता मिलता है
अब भी दिलकश है मिरे वास्ते वीराना-ए-दिल

है तो मिट्टी का मगर क़ुदरत-ए-ख़ालिक़ भी है
हुस्न वाले न बना लें कोई पैमाना-ए-दिल

देख कर तफ़िरक़ा-ए-मेहर-ओ-जफ़ा हम समझे
एक ही वज़्अ का बनता नहीं काशाना-ए-दिल

काएनात-ए-दो-जहाँ पास है फिर तंग नहीं
और भी कुछ हो तो ख़ाली है अभी ख़ाना-ए-दिल

रुख़-ए-रंगीन-ए-हसीं एक चमन है लेकिन
रौंदने के लिए हो सब्ज़ा-ए-बेगाना-ए-दिल

हुस्न है ख़ुद हैं ज़माना है वो क्यूँ घबराएँ
और यहाँ क्या है मगर हाँ वही वीराना-ए-दिल

मिट के तस्वीर-ए-ख़राबात है अब तो वर्ना
का'बा कहते थे सब ऐसा था सनम-ख़ाना-ए-दिल

कहिए क़िस्सा कोई अरबाब-ए-वफ़ा का 'साक़िब'
छोड़िए ज़िक्र जफ़ा का कि है बेगाना-ए-दिल