जहाँ वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम कारगर महसूस होती है
वहाँ ढलती हुई हर दोपहर महसूस होती है
वही शय मक़सद-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र महसूस होती है
कमी जिस की बराबर उम्र भर महसूस होती है
जतन भी क्या हसीं सूझा है तुझ को प्यार करने का
तिरी सूरत मुझे अपनी नज़र महसूस होती है
गली कूचों में सेहन-ए-मय-कदा का रंग होता है
मुझे दुनिया तिरा कैफ़-ए-नज़र महसूस होती है
ज़रा आगे चलोगे तो इज़ाफ़ा इल्म में होगा
मोहब्बत पहले पहले बे-ज़रर महसूस होती है
ये दो पत्थर न जाने कब से आपस में हैं वाबस्ता
जबीं अपनी तुम्हारा संग-ए-दर महसूस होती है
कभी सच तो नहीं उस आँख ने बोला मगर फिर भी
रवय्ये में निहायत मो'तबर महसूस होती है
अदम अब दोस्तों की बे-रुख़ी की है ये कैफ़िय्यत
खटकती तो नहीं इतनी मगर महसूस होती है
ग़ज़ल
जहाँ वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम कारगर महसूस होती है
अब्दुल हमीद अदम