जहाँ वालों से बरती इस क़दर बे-गानगी मैं ने
कि बरहम कर लिया अपना निज़ाम-ए-ज़िंदगी मैं ने
सिखाए हुस्न-ए-काफ़िर को सलीक़े ख़ुद-नुमाई के
सँवारा पै-ब-पै अपना मज़ाक़-ए-आशिक़ी मैं ने
हुए रौशन न फिर भी बाम-ओ-दर फ़िक्र-ओ-तसव्वुर के
हज़ारों बार की बज़्म-ए-जहाँ में रौशनी मैं ने
दिल-ए-ना-आक़िबत-अंदेश की कोताह-बीनी की
कभी ताईद की मैं ने कभी तरदीद की मैं ने
हज़ारों बार तहज़ीब-ओ-तमद्दुन की फ़ज़ा बदली
हज़ारों बार इक दुनिया नई आबाद की मैं ने
क्या इफ़शा न राज़-ए-ग़म किसी पर जीते-जी 'फ़ारिग़'
बड़े सब्र-ओ-तहम्मुल से बसर की ज़िंदगी मैं ने

ग़ज़ल
जहाँ वालों से बरती इस क़दर बे-गानगी मैं ने
लक्ष्मी नारायण फ़ारिग़