EN اردو
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं | शाही शायरी
jahan tera naqsh-e-qadam dekhte hain

ग़ज़ल

जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं

मिर्ज़ा ग़ालिब

;

जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं

दिल-आशुफ़्तगाँ ख़ाल-ए-कुंज-ए-दहन के
सुवैदा में सैर-ए-अदम देखते हैं

तिरे सर्व-क़ामत से इक क़द्द-ए-आदम
क़यामत के फ़ित्ने को कम देखते हैं

तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं

सुराग़-ए-तफ़-ए-नाला ले दाग़-ए-दिल से
कि शब-रौ का नक़्श-ए-क़दम देखते हैं

बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं

किसू को ज़-ख़ुद रस्ता कम देखते हैं
कि आहू को पाबंद-ए-रम देखते हैं

ख़त-ए-लख़्त-ए-दिल यक-क़लम देखते हैं
मिज़ा को जवाहर रक़म देखते हैं