जहाँ तेग़-ए-हिम्मत अलम देखते हैं
महालात का सर क़लम देखते हैं
जो बैठे थे याँ पा-ब-दामान-ए-हस्ती
उन्हें सर-ब-जेब-ए-अदम देखते हैं
कमालात-ए-साने' पे जिन की नज़र है
वो ख़ूबी-ए-मस्नूअ' कम देखते हैं
नहीं मुब्तला जो तन-आसानियों में
उन्हें दम-ब-दम ताज़ा-दम देखते हैं
नहीं जिन को जाह-ओ-हशम का तकब्बुर
वही लुत्फ़-ए-जाह-ओ-हशम देखते हैं
शिकम-परवरी जिन का शेवा है उन को
असीर-ए-जफ़ा-ए-शिकम देखते हैं
बस ऐ रंग-ओ-बू तू न कर नाज़ बे-जा
ख़ुदा जाने क्या बात हम देखते हैं
उड़ाते हैं जो रख़्श-ए-हिम्मत को सरपट
वो मंज़िल को ज़ेर-ए-क़दम देखते हैं

ग़ज़ल
जहाँ तेग़-ए-हिम्मत अलम देखते हैं
इस्माइल मेरठी