जहाँ से आए थे शायद वहीं चले गए हैं
वो साहिबान-ए-बशारत कहीं चले गए हैं
ज़मीं पे रेंगते रहने को हम जो हैं मौजूद
जो अहल-ए-शर्म थे ज़ेर-ए-ज़मीं चले गए हैं
बहिश्त है कि नहीं है ये तू ही जानता है
तिरे फ़क़ीर ब-नाम-ए-यक़ीं चले गए हैं
दिखाई देंगे कभी वक़्त के झरोकों से
वो लोग अब भी यहीं हैं हमीं चले गए हैं
वही हुआ है जो होता है सोने वालों से
ऐ मेरे दिल तिरे पहलू-नशीं चले गए हैं
हमारी आँख 'शनावर' हुई है क्या नमनाक
सुख़न-सराओं से ज़ेहरा-जबीं चले गए हैं
ग़ज़ल
जहाँ से आए थे शायद वहीं चले गए हैं
शनावर इस्हाक़