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जहाँ से आए थे शायद वहीं चले गए हैं | शाही शायरी
jahan se aae the shayad wahin chale gae hain

ग़ज़ल

जहाँ से आए थे शायद वहीं चले गए हैं

शनावर इस्हाक़

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जहाँ से आए थे शायद वहीं चले गए हैं
वो साहिबान-ए-बशारत कहीं चले गए हैं

ज़मीं पे रेंगते रहने को हम जो हैं मौजूद
जो अहल-ए-शर्म थे ज़ेर-ए-ज़मीं चले गए हैं

बहिश्त है कि नहीं है ये तू ही जानता है
तिरे फ़क़ीर ब-नाम-ए-यक़ीं चले गए हैं

दिखाई देंगे कभी वक़्त के झरोकों से
वो लोग अब भी यहीं हैं हमीं चले गए हैं

वही हुआ है जो होता है सोने वालों से
ऐ मेरे दिल तिरे पहलू-नशीं चले गए हैं

हमारी आँख 'शनावर' हुई है क्या नमनाक
सुख़न-सराओं से ज़ेहरा-जबीं चले गए हैं