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जहाँ पे तेरी कमी भी न हो सके महसूस | शाही शायरी
jahan pe teri kami bhi na ho sake mahsus

ग़ज़ल

जहाँ पे तेरी कमी भी न हो सके महसूस

शहरयार

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जहाँ पे तेरी कमी भी न हो सके महसूस
तलाश ही रही आँखों को ऐसे मंज़र की

हमें तो ख़ुद नहीं मालूम क्या किसी से कहें
कि तुझ से मिलने की कोशिश न क्यूँ बिछड़ कर की

मगर ये ज़ौक़-ए-परस्तिश कि अब भी तिश्ना है
जबीं को चूम चुके एक एक पत्थर की

कहाँ पे दफ़्न वो परछाइयाँ करें यारो
जो ताब ला न सकीं रौशनी के ख़ंजर की

हर एक गुल को है इश्क़-ए-सुमूम का सौदा
हर एक शाख़ यहाँ मो'तक़िद है सरसर की

जिधर अँधेरा है तन्हाई है उदासी है
सफ़र की हम ने वही सम्त क्यूँ मुक़र्रर की