जहाँ पे इल्म की कोई क़द्र और हवाला नहीं
मैं उस ज़मीन पे पाँव भी रखने वाला नहीं
मैं उस दरख़्त के अंदर था जिस को काटा गया
किसी ने भी तो वहाँ से मुझे निकाला नहीं
वो अपने अहद से आगे की बातें करने लगा
बहकते शख़्स को दुनिया ने फिर सँभाला नहीं
हर एक चोट पे कुछ और जुड़ने लगता था
सो उस ने मुझ को किसी शक्ल में भी ढाला नहीं
अजीब ख़ौफ़ में परवान चढ़ रही है ये नस्ल
किसी के हाथ में भी ज़हर का पियाला नहीं
अब अपनी साँसों से ज़ंजीर तोड़नी है मुझे
कि हाथ बेचने का और कुछ इज़ाला नहीं

ग़ज़ल
जहाँ पे इल्म की कोई क़द्र और हवाला नहीं
वक़ार ख़ान