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जहाँ में जिस की शोहरत कू-ब-कू है | शाही शायरी
jahan mein jis ki shohrat ku-ba-ku hai

ग़ज़ल

जहाँ में जिस की शोहरत कू-ब-कू है

सबीला इनाम सिद्दीक़ी

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जहाँ में जिस की शोहरत कू-ब-कू है
वो मुझ से आज महव-ए-गुफ़्तुगू है

रहा आबाद ख़्वाबों में जो अब तक
ख़ुशा क़िस्मत कि अब वो रू-ब-रू है

कभी वो प्यार से इक फूल लाए
बहुत दिन से मिरी ये आरज़ू है

नहीं आता ग़ज़ल में नाम कोई
तअल्लुक़ इस क़दर बा-आबरू है

मिरा एहसास जिस से है मोअत्तर
वही ख़ुशबू तो मेरे चार-सू है

सरापा मेरा जो है इतना रंगीं
ये उस की याद का ही रंग-ओ-बू है

जहाँ कल तक था मायूसी का सहरा
वहाँ उम्मीद की इक आबजू है

वो आवाज़ें जो दिल में गूँजती हैं
मिरी अन्फ़ास की वो हाव-हू है

मुझे ले जाए जो मंज़िल की जानिब
अब ऐसे कारवाँ की जुस्तुजू है

मिरा ज़ाहिर नज़र आता है जैसा
मिरा बातिन भी वैसा हू-ब-हू है

'सबीला' सोच इतनी पाक रक्खी
हर इक मज़मून मेरा बा-वज़ू है