जहाँ को वो लब-ए-मय-गूँ ख़राब रखते हैं
ख़ुदा ख़बर कि ये कैसी शराब रखते हैं
इक आब-ओ-ताब मह ओ आफ़्ताब रखते हैं
प रू-कशी की तिरी कब वो ताब रखते हैं
ज़हे ख़सासत-ए-अहल-ए-जहाँ कि मिस्ल-ए-गुहर
गिरह में बाँध के दरिया में आब रखते हैं
किस ए'तिबार पे दीजे बुताँ को दिल कि ब-ज़ोर
जो कुछ कि लें हैं किसी से ये दाब रखते हैं
ज़बान-ए-इश्क़ शिकायत से लाल है वर्ना
हम इक गिला के तिरे सौ जवाब रखते हैं
न लट धुएँ की है ऐसी न ज़ुल्फ़ सुम्बुल की
जो बाल सर के तिरे पेच-ओ-ताब रखते हैं
हबाब ओ बहर में हाजिब वजूद ही है हम आह
मिलें कब उस से ये जब तक हिजाब रखते हैं
लिया है हम ने भी बोसा दिया है उस को जो दिल
ये सच है दोस्त दिलों में हिसाब रखते हैं
न क्यूँ इज़ार की मोहरी ही शैख़-जी सी लें
सुरीं जो बहर-ए-वज़ू दाब दाब रखते हैं
न जाने जाते हैं जूँ शोला हम किधर 'क़ाएम'
कि हर दम एक नया इज़्तिराब रखते हैं
ग़ज़ल
जहाँ को वो लब-ए-मय-गूँ ख़राब रखते हैं
क़ाएम चाँदपुरी