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जहाँ कि है जुर्म एक निगाह करना | शाही शायरी
jahan ki hai jurm ek nigah karna

ग़ज़ल

जहाँ कि है जुर्म एक निगाह करना

आरज़ू लखनवी

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जहाँ कि है जुर्म एक निगाह करना
वहीं है गुनह पे डट के गुनाह करना

बुतों से बढ़ा के मेल निबाह करना
जहाँ के सफ़ेद को हे सियाह करना

सिखाया है मुझ को इस मिरी बे-कसी ने
उसी को सितम का उस के गवाह करना

लुभाने से दिल के था तो ये मुद्दआ था
ग़रीब की ज़िंदगी को तबाह करना

यही तो है हाँ यही वो अदा-ए-मासूम
अलग हुई जो सिखा के गुनाह करना

जफ़ा से भी लें मज़ा न वफ़ा का क्यूँकर
हमें तो हर इक तरह है निबाह करना

ये कहता है चश्म-ए-होश-रुबा का जादू
तुझे तिरे हाथ से है तबाह करना

तिरी नज़र से सीखा है आह-ए-दिल ने
जिगर में शिगाफ़ डाल के राह करना

नज़र में नज़र गड़ाए है यूँ वो ज़ालिम
कि 'आरज़ू' अब कठिन है इक आह करना