जहाँ है मकतब-ए-हस्ती सबक़ है चुप रहना
बड़ा गुनाह यहाँ है अलिफ़ से बे कहना
शब-ए-फ़िराक़ में साए से डर के कहता हूँ
अजी ये रात डरानी है जागते रहना
चमन में फूल खिले बाग़ में बहार आई
उरूस-ए-दहर ने गोया पहन लिया गहना
हमारी आह-ओ-बका से है जिस्म-ए-शौक़ क़वी
ये हाथ बायाँ है अपना वो हाथ है दहना
फ़ुग़ान-ए-बुल्बुल-ए-शैदा न जानिए इस को
बजा रहा है कोई सेहन-ए-बाग़ में शहना
ग़म-ए-फ़िराक़ में ऐ आसमाँ नहीं मौक़ूफ़
वो जो सुहाएँ मुझे मुझ को हर तरह सहना
निकाल दे कि है ऐसे में जू-ए-अश्क-ए-रवाँ
बुरा है बात का ऐ चश्म-ए-दिल में ले रहना
गली में यार की हो या किसी ख़राबे में
हमें तो हश्र के दिन तक कहीं पे मर रहना
असर भी 'शाद' के शे'रों में है मतानत भी
ये कोहना-मश्क़ हैं इन की ग़ज़ल का क्या कहना
ग़ज़ल
जहाँ है मकतब-ए-हस्ती सबक़ है चुप रहना
शाद अज़ीमाबादी