जहाँ ग़म मिला उठाया फिर उसे ग़ज़ल में ढाला
यही दर्द-ए-सर ख़रीदा यही रोग हम ने पाला
तिरे हाथ से मिली है मुझे आँसुओं की माला
तिरी ज़ुल्फ़ हो दो-गूना तिरा हुस्न हो दो-बाला
ये समाँ उसे दिखाऊँ सबा जा उसे बुला ला
न बहार है न साक़ी न शराब है न प्याला
मिरे दर्द की हक़ीक़त कोई मेरे दिल से पूछे
ये चराग़ वो है जिस से मिरे घर में है उजाला
उसे अंजुमन मुबारक मुझे फ़िक्र-ओ-फ़न मुबारक
यही मेरा तख़्त-ए-ज़र्रीं यहीं मेरी मिर्ग-छाला
ग़ज़ल
जहाँ ग़म मिला उठाया फिर उसे ग़ज़ल में ढाला
कलीम आजिज़