जहाँ ग़म है न अब कोई ख़ुशी है
मोहब्बत उस जगह पर आ गई है
जिसे देखो उसे अपनी पड़ी है
ज़माने की बहुत हालत गिरी है
मुसलसल फ़िक्र-ए-दुनिया फ़िक्र-ए-उक़्बा
अब ऐसी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
मैं अपने दिल की बातें कह रहा हूँ
ज़माने के लिए ये शाइ'री है
सकूँ मिलता है उन की याद कर के
इलाज-ए-तिश्नगी ख़ुद तिश्नगी है
दिलों में है अंधेरा अहद-ए-नौ का
ब-ज़ाहिर रौशनी ही रौशनी है
बड़ी मुश्किल है मीर-ए-कारवाँ की
बहुत फैली हुई बे-रह-रवी है
नई तहज़ीब में सब कुछ है लेकिन
फ़क़त इंसानियत ही की कमी है
ये लगता है तरक़्क़ी कर रहे हैं
गिरावट रोज़ बढ़ती जा रही है
कहीं पत्थर न फीके ये ज़माना
तेरी फ़िक्र-ओ-अमल शीशागरी है
उठा है एक कोने में धुआँ सा
कहीं शायद कोई बिजली गिरी है
करूँ ऐ 'मौज' क्या उम्मीद-ए-साहिल
कि अब तूफ़ाँ में कश्ती घिरी है

ग़ज़ल
जहाँ ग़म है न अब कोई ख़ुशी है
मोज फ़तेहगढ़ी