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जहाँ ग़म है न अब कोई ख़ुशी है | शाही शायरी
jahan gham hai na ab koi KHushi hai

ग़ज़ल

जहाँ ग़म है न अब कोई ख़ुशी है

मोज फ़तेहगढ़ी

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जहाँ ग़म है न अब कोई ख़ुशी है
मोहब्बत उस जगह पर आ गई है

जिसे देखो उसे अपनी पड़ी है
ज़माने की बहुत हालत गिरी है

मुसलसल फ़िक्र-ए-दुनिया फ़िक्र-ए-उक़्बा
अब ऐसी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है

मैं अपने दिल की बातें कह रहा हूँ
ज़माने के लिए ये शाइ'री है

सकूँ मिलता है उन की याद कर के
इलाज-ए-तिश्नगी ख़ुद तिश्नगी है

दिलों में है अंधेरा अहद-ए-नौ का
ब-ज़ाहिर रौशनी ही रौशनी है

बड़ी मुश्किल है मीर-ए-कारवाँ की
बहुत फैली हुई बे-रह-रवी है

नई तहज़ीब में सब कुछ है लेकिन
फ़क़त इंसानियत ही की कमी है

ये लगता है तरक़्क़ी कर रहे हैं
गिरावट रोज़ बढ़ती जा रही है

कहीं पत्थर न फीके ये ज़माना
तेरी फ़िक्र-ओ-अमल शीशागरी है

उठा है एक कोने में धुआँ सा
कहीं शायद कोई बिजली गिरी है

करूँ ऐ 'मौज' क्या उम्मीद-ए-साहिल
कि अब तूफ़ाँ में कश्ती घिरी है