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जहान-ए-रंग-ओ-बू पर छा रहा है | शाही शायरी
jahan-e-rang-o-bu par chha raha hai

ग़ज़ल

जहान-ए-रंग-ओ-बू पर छा रहा है

लक्ष्मी नारायण फ़ारिग़

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जहान-ए-रंग-ओ-बू पर छा रहा है
हर इक पर्दे से वो जल्वा-नुमा है

बशर ठोकर पे ठोकर खा रहा है
सज़ा अपने किए की पा रहा है

तमन्ना और फिर उन की तमन्ना
ये इरफ़ान-ए-ख़ुदी की इंतिहा है

बुतों को देख कर आता है तू याद
बुतों के हुस्न में जल्वा तिरा है

कहीं तू है कहीं तस्वीर तेरी
न का'बा है न कोई बुत-कदा है

तुम्हारी याद कर लेता हूँ ताज़ा
बुतों को कौन काफ़िर पूजता है

नहीं चारा किसी के पास इस का
मोहब्बत एक दर्द-ए-ला-दवा है

शराब-ए-ज़ीस्त पीता जा रहा हूँ
सुरूर-ए-होश बढ़ता जा रहा है

जिगर में चुभ रही है नोक-ए-मिज़्गाँ
बला का दर्द 'फ़ारिग़' हो रहा है