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जफ़ा-शिआ'र भी हो कोई मेहरबाँ भी रहे | शाही शायरी
jafa-shiar bhi ho koi mehrban bhi rahe

ग़ज़ल

जफ़ा-शिआ'र भी हो कोई मेहरबाँ भी रहे

शाद बिलगवी

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जफ़ा-शिआ'र भी हो कोई मेहरबाँ भी रहे
किसी के लब पे दुआएँ भी हों फ़ुग़ाँ भी रहे

तिरी ये दुश्मन-ए-जाँ को दुआ जबीन-ए-नियाज़
कि तू रहे ये तेरा संग-ए-आस्ताँ भी रहे

हुज़ूर उन के कहें हर्फ़-ए-मुद्दआ तो मगर
ये दिल भी पहलू में हो मुँह में ये ज़बाँ भी रहे

इधर तबाही-ओ-ग़ारतगरी उधर ता'मीर
गिरी है बर्क़ भी आबाद आशियाँ भी रहे

पुकारा मौत को तंग आ के ज़िंदगी से कभी
तू महव-ए-जुस्तुजू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ भी रहे

ग़म-ए-मआ'श वतन में यहाँ ग़म-ए-ग़ुर्बत
ख़राब हाल वहाँ भी रहे यहाँ भी रहे

रह-ए-वफ़ा में मिटा दे वो अपनी हस्ती को
जो चाहता है मिरा हश्र तक निशाँ भी रहे