जबकि दुश्मन हो राज़ दाँ अपना
राज़ क्यूँ कर रहे निहाँ अपना
इश्क़ में फिर सुकून कैसे हो
दिल जब ऐसा हो बद-गुमाँ अपना
थी बहार-ए-चमन जवानी पर
जबकि उजड़ा था आशियाँ अपना
हम मुकर्रर फ़रेब क्या खाएँ
लुत्फ़ रहने दो मेहरबाँ अपना
क्यूँ न ख़लवत-गुज़ीं रहूँ 'शाकिर'
गुज़र उस बज़्म में कहाँ अपना
ग़ज़ल
जबकि दुश्मन हो राज़ दाँ अपना
शाकिर कलकत्तवी