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जबकि दुश्मन हो राज़ दाँ अपना | शाही शायरी
jabki dushman ho raaz dan apna

ग़ज़ल

जबकि दुश्मन हो राज़ दाँ अपना

शाकिर कलकत्तवी

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जबकि दुश्मन हो राज़ दाँ अपना
राज़ क्यूँ कर रहे निहाँ अपना

इश्क़ में फिर सुकून कैसे हो
दिल जब ऐसा हो बद-गुमाँ अपना

थी बहार-ए-चमन जवानी पर
जबकि उजड़ा था आशियाँ अपना

हम मुकर्रर फ़रेब क्या खाएँ
लुत्फ़ रहने दो मेहरबाँ अपना

क्यूँ न ख़लवत-गुज़ीं रहूँ 'शाकिर'
गुज़र उस बज़्म में कहाँ अपना