EN اردو
जबीं पे गर्द-ए-कुदूरत मिरा उसूल नहीं | शाही शायरी
jabin pe gard-e-kudurat mera usul nahin

ग़ज़ल

जबीं पे गर्द-ए-कुदूरत मिरा उसूल नहीं

मंज़ूर अहमद मंज़ूर

;

जबीं पे गर्द-ए-कुदूरत मिरा उसूल नहीं
जफ़ा-ए-अहल-ए-ज़माना पे दिल मलूल नहीं

मिरी ख़ुदी तो खटकती थी तेरी आँखों में
तिरे हुज़ूर मिरा इज्ज़ भी क़ुबूल नहीं

ये बिखरे तारे ये बे-नज़्म फूल शाहिद हैं
नुमूद-ए-हुस्न में पाबंदी-ए-उसूल नहीं

ज़रूर कुछ तो है अपनी हयात का मक़्सद
सुना है चीज़ कोई दहर में फ़ुज़ूल नहीं

मिरे वक़ार पे तेरे करम पे हर्फ़ आता
मक़ाम-ए-शुक्र है मेरी दुआ क़ुबूल नहीं

मिरे ग़ुबार से दामन-कशाँ हो क्यूँ यारो
चमन की बू-ए-परेशाँ हूँ बन की धूल नहीं