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जबीं पे धूप सी आँखों में कुछ हया सी है | शाही शायरी
jabin pe dhup si aankhon mein kuchh haya si hai

ग़ज़ल

जबीं पे धूप सी आँखों में कुछ हया सी है

नासिर काज़मी

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जबीं पे धूप सी आँखों में कुछ हया सी है
तू अजनबी है मगर शक्ल आश्ना सी है

ख़याल ही नहीं आता किसी मुसीबत का
तिरे ख़याल में हर बात ग़म-रुबा सी है

जहाँ में यूँ तो किसे चैन है मगर प्यारे
ये तेरे फूल से चेहरे पे क्यूँ उदासी है

दिल-ए-गमीं से भी जलते हैं शादमान-ए-हयात
उसी चराग़ की अब शहर में हवा सी है

हमीं से आँख चुराता है उस का हर ज़र्रा
मगर ये ख़ाक हमारे ही ख़ूँ की प्यासी है

उदास फिरता हूँ मैं जिस की धुन में बरसों से
यूँही सी है वो ख़ुशी बात वो ज़रा सी है

चहकते बोलते शहरों को क्या हुआ 'नासिर'
कि दिन को भी मिरे घर में वही उदासी है