जब ज़ुल्फ़ शरीर हो गई है
ख़ुद अपनी असीर हो गई है
जन्नत के मुक़ाबले में दुनिया
आप अपनी नज़ीर हो गई है
जो बात तिरी ज़बाँ से निकली
पत्थर की लकीर हो गई है
होंटों पे तिरे हँसी मचल कर
जल्वों की लकीर हो गई है
जो आह मिरी ज़बाँ से निकली
अर्जुन का वो तीर हो गई है
शायद कोई बे-नज़ीर बन जाए
वो बदर-ए-मुनीर हो गई है
ऐ बाद-ए-सबा तू छू के गेसू
ख़ुशबू की सफ़ीर हो गई है
आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल ही 'उनवाँ'
आवाज़-ए-ज़मीर हो गई है
ग़ज़ल
जब ज़ुल्फ़ शरीर हो गई है
उनवान चिश्ती