जब ज़रा हुई आहट शाख़ पर हिले पत्ते
पेड़ सो गए लेकिन जागते रहे पत्ते
सैकड़ों परिंदों ने ओढ़ ली रिदा जैसे
रात की सियाही में ओट बन गए पत्ते
सुर्ख़ ख़ून शाख़ों का है वजूद में शामिल
देख कर फ़ज़ा लेकिन सब्ज़ हो गए पत्ते
जैसे उन के दामन पर धूल थी न धब्बा था
इक ज़रा सी बारिश से कैसे धुल गए पत्ते
जब भी लू चली यारो सब्ज़ रुत बदलने को
तालियाँ बजाएँगे फिर यही हरे पत्ते
जंगलों में ख़ामोशी हब्स की अलामत है
ताज़गी सी देते हैं बोलते हुए पत्ते
बे-लिबास हो कर भी पेड़ तो रहे क़ाएम
हिजरतों के मौसम ने दर-ब-दर किए पत्ते
अब चमन की रखवाली मश्ग़ला है बच्चों का
फूल जब नहीं पाए नोचने लगे पत्ते
ग़ज़ल
जब ज़रा हुई आहट शाख़ पर हिले पत्ते
मुर्तज़ा बिरलास