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जब ये आलम हो तो लिखिए लब-ओ-रुख़्सार पे ख़ाक | शाही शायरी
jab ye aalam ho to likhiye lab-o-ruKHsar pe KHak

ग़ज़ल

जब ये आलम हो तो लिखिए लब-ओ-रुख़्सार पे ख़ाक

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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जब ये आलम हो तो लिखिए लब-ओ-रुख़्सार पे ख़ाक
उड़ती है ख़ाना-ए-दिल के दर-ओ-दीवार पे ख़ाक

तू ने मिट्टी से उलझने का नतीजा देखा
डाल दी मेरे बदन ने तिरी तलवार पे ख़ाक

हम ने मुद्दत से उलट रक्खा है कासा अपना
दस्त-ए-दादार तिरे दिरहम-ओ-दीनार पे ख़ाक

पुतलियाँ गर्मी-ए-नज़्ज़ारा से जल जाती हैं
आँख की ख़ैर मियाँ रौनक़-ए-बाज़ार पे ख़ाक

जो किसी और ने लिक्खा है उसे क्या मालूम
लौह-ए-तक़दीर बजा चेहरा-ए-अख़बार पे ख़ाक

चार दीवार-ए-अनासिर की हक़ीक़त कितनी
ये भी घर डूब गया दीदा-ए-ख़ूँ-बार पे ख़ाक

पा-ए-वहशत ने अजब नक़्श बनाए थे यहाँ
ऐ हवा-ए-सर-ए-सहरा तिरी रफ़्तार पे ख़ाक

ये ग़ज़ल लिख के हरीफ़ों पे उड़ा दी मैं ने
जम रही थी मिरे आईना-ए-अशआर पे ख़ाक

ये भी देखो कि कहाँ कौन बुलाता है तुम्हें
महज़र-ए-शौक़ पढ़ो महज़र-ए-सरकार पे ख़ाक

आप क्या नक़द-ए-दो-आलम से ख़रीदेंगे इसे
ये तो दीवाने का सर है सर-ए-पिंदार पे ख़ाक